भारत में दशहरा के अनोखे रंग

भारत में दशहरा उत्सव हर राज्य में अलग-अलग अंदाज में मनाया जाता है। पश्चिम बंगाल में सिंदूर खेला होता है, तो गुजरात और महाराष्ट्र में डांडिया रास और गरबा की धूम रहती है। इन रंग-बिरंगे उत्सवों से दशहरा का जश्न पूरे देश में विविधता और एकता की मिसाल पेश करता है।

डांडिया रास और गरबा: गुजरात और महाराष्ट्र में दशहरा की धूम

गुजरात और महाराष्ट्र में दशहरा का जश्न नवरात्रि के साथ शुरू होता है, जहां डांडिया रास और गरबा प्रमुख होते हैं। लोग रंग-बिरंगे परिधानों में सज-धज कर गरबा और डांडिया की धुनों पर नाचते हैं। यह न केवल धार्मिक उत्सव है, बल्कि समाजिक मेलजोल का भी प्रतीक है। यहां के दशहरा उत्सव में उत्साह, जोश और संगीत का अद्भुत संगम देखने को मिलता है। दशहरे की रात को रावण दहन कर बुराई पर अच्छाई की जीत का जश्न मनाया जाता है।

सिंदूर खेला: पश्चिम बंगाल में दशहरा का विशेष रंग

  • डांडिया रास और गरबा: गुजरात और महाराष्ट्र में दशहरा के दौरान डांडिया रास और गरबा का आयोजन बड़े धूमधाम से किया जाता है, जहां लोग रंग-बिरंगे परिधानों में नाचते हैं।
  • सिंदूर खेला: पश्चिम बंगाल में दशहरा के दिन सिंदूर खेला की परंपरा होती है, जिसमें विवाहित महिलाएं एक-दूसरे को सिंदूर लगाकर मां दुर्गा से खुशहाली की कामना करती हैं।
  • दुर्गा पूजा: पश्चिम बंगाल में दशहरा का प्रमुख आकर्षण दुर्गा पूजा है, जो कि नवरात्रि के अंत में मनाई जाती है और इसमें मां दुर्गा की भव्य मूर्तियों की स्थापना की जाती है।
  • रावण दहन: भारत के कई हिस्सों में दशहरा के दिन रावण, मेघनाद और कुम्भकर्ण का दहन किया जाता है, जो बुराई पर अच्छाई की जीत का प्रतीक है।
  • संस्कृति और मेलजोल: विभिन्न क्षेत्रों में दशहरा उत्सव न केवल धार्मिक बल्कि सामाजिक मेलजोल का भी प्रतीक है, जो समुदायों को एकजुट करता है।
  • विविधता में एकता: भारत के विभिन्न हिस्सों में दशहरा मनाने के अनोखे तरीकों से यह दिखाता है कि कैसे विविधता में एकता है, जहां अलग-अलग संस्कृतियों और परंपराओं का सम्मान किया जाता है।

पश्चिम बंगाल में दशहरा का मुख्य आकर्षण दुर्गा पूजा होती है, और दशमी के दिन सिंदूर खेला की परंपरा निभाई जाती है। इस दिन विवाहित महिलाएं एक-दूसरे को सिंदूर लगाकर मां दुर्गा से अपने परिवार की खुशहाली की कामना करती हैं। सिंदूर खेला न केवल महिलाओं की शक्ति और सौभाग्य का प्रतीक है, बल्कि यह सामाजिक और सांस्कृतिक बंधनों को मजबूत करने का अवसर भी होता है। इसके बाद मां दुर्गा की प्रतिमाओं का विसर्जन कर उन्हें विदाई दी जाती है।

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